पश्चिम ओडिशा और छत्तीसगढ़ में पारंपरिक उल्लास के साथ मनाया गया नुआखाई पर्व, नुआखाई जुहार और आपसी भेंट-घाट कार्यक्रम मे उमड़े लोग..

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रायपुर // धान की नई फसल के स्वागत का लोकपर्व नुआखाई पश्चिम ओडिशा के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती जिलों में आज बड़ी धूमधाम और पारंपरिक उत्साह के साथ मनाया गया। घर-घर में नए चावल से बने पकवानों की खुशबू बिखरी और पूरे गांव-समाज में लोकगीत-नृत्यों की गूंज सुनाई दी।

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नुआखाई की शुरुआत घरों और आंगनों की लिपाई-पुताई से हुई। साफ-सफाई कर आंगन को गोबर से लीपकर मां अन्नपूर्णा और गृहदेवताओं का स्वागत करने की परंपरा निभाई गई। इस दिन सबसे पहले नए चावल के दाने से बने प्रसाद को माता अन्नपूर्णा, गृहदेवता, ग्रामदेवता और अन्य देवी-देवताओं को अर्पित किया गया। इसके बाद परिवारजन प्रसाद को ग्रहण कर नवान्ह भोज (नवान्नभोज) का आनंद लिया। गांवों में ढोल, मंजीरा और झांझ की थाप पर महिलाएं और युवक पारंपरिक गीत गाकर झूम उठे। नुआखाई के मौके पर ऐसा प्रतीत हुआ मानो धरती खुद उत्सव मना रही हो।

बता दें की नुआखाई ओड़िशा का प्रमुख लोक-पर्व है। यह पर्व पश्चिम ओड़िशा के सीमावर्ती छत्तीसगढ़ में भी मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ के सारंगढ़-बिलाईगढ़, रायगढ़, जशपुर, गरियाबंद, महासमुन्द, धमतरी सहित बस्तर संभाग के कुछ जिले भी इनमें शामिल हैं, जहाँ पड़ोसी राज्य की तरह उत्कल संस्कृति से जुड़े लाखों लोग इसे पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ उत्साह से मनाते हैं।

भोजली विसर्जन में उमड़ी भीड़

सावन के महीने में रक्षाबंधन के अगले दिन युवतियों द्वारा धान, गेहूं या जौ के बीज को टोकनी में बोया गया था, जिसे भोजली देवी के रूप में पूजा जाता है। यह त्यौहार अच्छी फसल, सुख-समृद्धि और अटूट मित्रता का प्रतीक माना जाता है। हफ्तों तक माता भोजली की सेवा करने के बाद नवाखाई के दिन गाजे-बाजे के साथ नदी-तालाबों में भोजली विसर्जन किया गया और आशीर्वाद मांगा गया। इस दौरान ग्रामीण अंचलों में सैकड़ों की संख्या में लोग शामिल हुए।

क्या है नुआखाई लोकपर्व ?

नुआखाई का अर्थ है नया खाना (नुआ = नया, खाई = खाना) यानी नई फसल का पहला अन्न। यह त्यौहार मुख्य रूप से किसानों और खेतिहर मजदूरों द्वारा मनाया गया, लेकिन समाज का हर वर्ग इसमें उत्साह से शामिल हुआ। बारिश के मौसम में जब खेतों में जल्दी पकने वाली धान की बालियां झूमने लगीं, तभी गांव-गांव में नुआखाई की तैयारियां शुरू हो गई थीं। इस अवसर पर लोग रिश्तेदारों और मित्रों को अपने घर बुलाकर नवान्ह भोज का आयोजन करते रहे। बच्चों और बुजुर्गों तक सभी इस पर्व की खुशियों में शामिल हुए।

नुआखाई का इतिहास

इतिहासकारों के अनुसार नुआखाई की परंपरा वैदिक काल से जुड़ी रही है। हालांकि पश्चिम ओडिशा में इसे व्यापक रूप से प्रचलित करने का श्रेय 12वीं शताब्दी के चौहान वंश के राजा रमईदेव को दिया जाता है। राजा रमईदेव ने स्थायी खेती को बढ़ावा देने के लिए इसे धार्मिक रूप से जोड़ते हुए लोकपर्व का रूप दिया। पाटनागढ़ (वर्तमान बलांगीर) से शुरू हुई यह परंपरा आज ओडिशा और छत्तीसगढ़ दोनों ही राज्यों के लोकजीवन का अहम हिस्सा बन चुकी है।

नुआखाई से जुड़ी सामाजिक एकता

यह पर्व सिर्फ खेती-किसानी तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सामाजिक एकता और पारिवारिक रिश्तों को मजबूत करने का भी माध्यम बना। नवान्ह भोज, नुआखाई जुहार और आपसी भेंट-घाट इसकी आत्मा रहे। नुआखाई सिर्फ एक कृषि पर्व नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर है जो पीढ़ियों को जोड़ता है। यह उत्सव हर साल हमें धरती माता और अन्नपूर्णा देवी के आशीर्वाद के महत्व का एहसास कराता है।

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