झीरम हत्याकांड के 9 साल बाद नया गवाह, पहली बार सामने आया बिट्टू, जिसने देखी महेंद्र कर्मा की हत्या, पटेल ने कहा था- लीडर साथ आए हैं साथ जाएंगे..

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रायपुर// 25 मई 2013 एक ऐसा काला दिन है जिसने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया था। छत्तीसगढ़ कांग्रेस के कई शीर्ष नेताओं सहित 32 लोग जिस नरसंहार में मारे गए थे। उस झीरम घाटी हत्याकांड को आज 9 साल पूरे हो गए। नक्सलियों की यह नृशंस वारदात महज आतंक मचाने के लिए थी या कोई राजनीतिक सुपारी किलिंग थी। यह सवाल नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (NIA) और एक न्यायिक आयोग की जांच पूरी होने के बावजूद सवाल ही है।

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इस नरसंहार के 9 साल बाद हमने फिर सुकमा जिले की दरभा-झीरम घाटी की यात्रा की। नक्सलियों की गोलियों से घायल होने वालों, लाशों के बीच सांस रोककर पड़े रहने वालों, करीब 3 घंटे तक बंधक रहने वालों से बातचीत की। हमने उस रवि सलहोत्रा उर्फ बिट्टू से भी बात की, जिसने बस्तर टाइगर कहे जाने वाले पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा के साथ सरेंडर किया था। जिससे महज 5 फीट दूरी पर कर्मा को गोलियों से छलनी कर दिया गया था। बिट्टू पहली बार मीडिया के सामने आया है। हमने इस हत्याकांड की कई ऐसी बातों को जाना जो तमाम रिपोर्ट्स, जांच, बयानों के बाद भी सामने आने से रह गई। ऐसी ही कुछ अनसुनी-अनकही बातों को झीरम शहीदों की नौवीं बरसी पर आप से साझा करते हैं।

“ROP छोड़, महेंद्र कपूर के गाने लगा सरदार”

2013 के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने प्रदेश में परिवर्तन यात्रा निकाली थी। तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल इसका नेतृत्व कर रहे थे। 25 मई को इस यात्रा का पड़ाव बस्तर के घोर नक्सल प्रभाव वाले सुकमा में था। वहां दोपहर को सभा होने वाली थी। बस्तर के सबसे ताकतवर आदिवासी नेता और विधानसभा में कांग्रेस के पूर्व मंत्री, नेता प्रतिपक्ष रह चुके महेंद्र कर्मा ने इस सभा में शामिल होने का निश्चय किया था। वे नक्सलियों की हिटलिस्ट में पहला नाम थे और कई बार उन पर हमला हो चुका था। उन्हें सभी ने सुकमा नहीं जाने की सलाह दी थी, लेकिन उन्होंने जाना तय कर लिया था। उन्होंने अपने करीबी मलकीत सिंह गैदू से 25 तारीख की सुबह 10 बजे गाड़ी लेकर जगदलपुर के बंगले पहुंचने कहा था। सुबह गैदू अपनी पजेरो लेकर कर्मा के बंगले पर थे। मलकीत ने स्टेयरिंग संभाला, बाजू में कर्मा बैठे। पीछे उनका सिक्योरिटी ऑफिसर और ड्राइवर बिट्टू बैठे थे। गाड़ी दरभा होकर सुकमा जाने के लिए दौड़ पड़ी।

घने जंगल के रास्ते पर दरभा आने तक भी जब मलकीत को रास्ते में कहीं रोड ओपनिंग पार्टी नहीं दिखी तो उन्होंने महेंद्र कर्मा से इसका जिक्र किया। बस्तर के नक्सल इलाकों में रोड ओपनिंग पार्टी रोज, सड़कों की गश्त करती है। सड़कों से लगे जंगलों में सर्चिंग करती है कि कहीं कोई नक्सली मूवमेंट तो नहीं है। ये वहां रोज का रूटीन है और ऐसे समय जब उस सड़क से बड़ा काफिला गुजरने वाला है। बड़ा कार्यक्रम होने वाला है तो ROP तो पूरे समय रहती है। मलकीत को थोड़ी चिंता हुई। उन्होंने फिर कहा, जवान तो दिख नहीं रहे, उनकी मोटरसाइकिलें भी नहीं दिख रही हैं कि लगे कि वे जंगल के अंदर गए हैं। यह चिंता सुनकर महेंद्र कर्मा ने बेफिक्र अंदाज में कहा, “आरओपी छोड़ सरदार, महेंद्र कपूर के गाने लगा”। मलकीत बताते हैं कि कर्मा को महेंद्र कपूर बेहद पसंद थे और फिर वे सुकमा तक महेंद्र कपूर के गाने सुनते रहे।

“हमको कुछ हुआ तो सेना आ जाएगी”

जगदलपुर सर्किट हाउस से नेताओं का काफिला 25 तारीख की सुबह सुकमा के लिए निकल रहा था। यात्रा की व्यवस्थाएं देख रहे प्रदेश सचिव विवेक बाजपेयी बताते हैं कि सुबह मेरे पास बस्तर में रहने वाले एक रिश्तेदार आए। उन्होंने आगाह किया कि इस समय नक्सली खौफ है, उन्हें यात्रा में नहीं जाना चाहिए। विवेक ने प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल से नक्सलियों की धमकी पर बात की। पटेल ने उनसे ही पूछ लिया था कि डर रहे हो क्या। फिर दिलासा देते हुए कहा था कि चिंता मत करो, केंद्र में हमारी सरकार है, यहां हम लोगों को कुछ भी हुआ तो सेना आ जाएगी। नंदकुमार पटेल के यह शब्द उनके और महेंद्र कर्मा के लिए नियति बन गए। सुकमा की सभा दोपहर करीब 2 बजे खत्म हुई। इस दिन की आखिरी सभा केसलूर में थी। केसलूर के लिए भी काफिले को दरभा-जीरम होते हुए जाना था। महेंद्र कर्मा चाहते थे कि वे सुकमा से बिना लंच लिए पहले ही केसलूर सभा स्थल पर पहुंच जाएं। यह बात उन्होंने नंदकुमार पटेल को बताई। पटेल इसके लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने कर्मा से मजाकिया अंदाज में कहा- लीडर, साथ आए हैं साथ जाएंगे, रुकिए खाना खाकर निकलते हैं। कर्मा के साथ उस वक्त मौजूद मलकीत सिंह गैदू कहते हैं कि ये शब्द सही हो गए। पटेल जी और नंदकुमार इस दुनिया से साथ ही चले गए। अगर हम लोग पहले निकलते तो उस एंबुश में या तो हमारी गाड़ियां फंसती और अगर हम सुरक्षित निकल जाते तो पटेल जी का काफिला फंसता, लेकिन एक साथ आने में दोनों फंस गए।

ऐसे सुरक्षित निकला परिवर्तन रथ

इस परिवर्तन यात्रा की पहचान था परिवर्तन रथ। एक बस को मॉडीफाई कर उसे इस यात्रा के लिए आरामदायक बना दिया गया था। तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नंद कुमार पटेल इसी बस में अपनी टीम के साथ यात्रा कर रहे थे। यह बस परिवर्तन यात्रा की पहचान बन गई थी। 25 मई 2013 को जब परिवर्तन यात्रा सुकमा जा रही थी तो पटेल से कहा गया कि वे परिवर्तन रथ को अपने काफिले में ना रखें। इससे नक्सलियों को काफिले के पहचान होने का डर है। यात्रा का प्रबंधन देख रहे, तत्कालीन प्रदेश सचिव विवेक बाजपेयी बताते हैं कि बहुत मनाने पर पटेल जी बस की जगह किसी और गाड़ी में बैठने के लिए तो मान गए, लेकिन उन्होंने कहा कि परिवर्तन रथ सुकमा जरूर जाएगा। इसके बाद विवेक ने जगदलपुर से रथ को सुबह पहले ही सुकमा भेज दिया। जहां वह सभा स्थल से करीब 5 किलोमीटर पहले काफिले का इंतजार करता रहा, फिर काफिले के साथ ही सभा स्थल पहुंचा। सभा अभी आधी ही हुई थी कि पटेल जी के बेटे, दिनेश ने रथ को वापस जाने कह दिया। बस की स्पीड कम होती है, लिहाजा इन लोगों का मानना था कि वे केसलूर जहां दूसरी सभा होनी थी में बस के साथ ही पहुंच जाएंगे। बस को लेकर दो स्थानीय युवा नेता केसलूर की तरफ बढ़ गए। बस ने दरभा-झीरम घाटी पार की। वह पुलिया भी पार की जिसके नीचे आईईडी लगाकर विस्फोट किया गया था और सुरक्षित दरभा से निकल गई।

जोगी की तारीफ पर हंसे कर्मा

सुकमा में लंच के बाद काफिला अपनी-अपनी गाड़ियों से दूसरी सभा के लिए बढ़ा। महेंद्र कर्मा, मलकीत की गाड़ी में बैठे सभा में दिए गए नेताओं के भाषण पर चर्चा कर रहे थे। मलकीत ने उनसे कहा कि आज तो गजब हो गया, अजीत जोगी ने आपकी और विद्याचरण जी की भाषण में तारीफ कर दी। यह सुनकर कर्मा हंसे और कहा जोगी की बात जोगी ही जानते हैं। दरअसल, कर्मा और विद्याचरण जोगी के धुर विरोधी माने जाते रहे हैं। करीब 25 गाड़ियों का काफिला शाम करीब सवा चार बजे दरभा-झीरम घाटी पहुंचा। पुलिया पर ब्लास्ट कर नक्सलियों ने सड़क के दोनों ओर से जबरदस्त फायरिंग की। जिसको मौका मिला वो गाड़ियों से नीचे कूदकर सड़क किनारे के नाले में छिप गया, गाड़ियों के नीचे घुस गया। जो गाड़ियों में बैठे रहे उनमें ज्यादातर गोलियां लगने से मारे गए। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक करीब एक घंटे बाद गोलियां चलनी कम हुई और नक्सलियों ने सरेंडर करने के लिए कहा। पहला सरेंडर, एक ही गाड़ी में मौजूद विधायक कवासी लखमा, नंदकुमार पटेल, उनके बेटे दिनेश और एक गार्ड ने किया। नक्सली इन चारों को सड़क के बायीं ओर अंदर जंगल में ले गए और वहां नंदकुमार पटेल और दिनेश को मार दिया। कवासी और गार्ड को छोड़ दिया गया।

इसके बाद नक्सली महेंद्र कर्मा का नाम लेकर सरेंडर करने के लिए चिल्लाते रहे। दूसरा सरेंडर महेंद्र कर्मा, पूर्व विधायक फूलोदेवी नेताम, मलकीत सिंह गैदू, डाक्टर शिवनारायण, विवेक बाजपेयी और गैदू के ड्राइवर बिट्टू ने किया। जब लोगों को मारने का सिलसिला बंद ही नहीं हो रहा था तो महेंद्र कर्मा दोनों हाथ ऊपर कर खड़े हुए और कहा मैं सरेंडर कर रहा हूं। नक्सली इन पांचों को लेकर सड़क की दायीं तरफ पहाड़ी पर जंगल के भीतर ले गए। वहां सभी से मुंह जमीन की ओर कर लेट जाने कहा। महेंद्र कर्मा और बिट्टू को इन तीनों से 10-20 मीटर और आगे ले गए। वहां बिट्टू को उल्टा लेट जाने कहा और कर्मा की कनपटी में गोली मार दी। इसके बाद तीसरे सरेंडर के लिए मलकीत सिंह गैदू और गाड़ियों के नीचे छिपे, घायल पड़े लोग सामने आए। इनको भी नक्सली दायीं ओर की पहाड़ी पर जहां कर्मा की लाश और बाकी लोग थे वहां ले गए और हाथ पीछे कर लेटने कहा।

बिट्टू का पहला बयान

इस हमले में घायल और बंधक बने सभी लोग किसी ना किसी तरह मीडिया में आ चुके हैं, लेकिन बिट्टू पहली बार सामने आ रहा है। वह ऐसा गवाह है जो महेंद्र कर्मा के आखिरी समय में उनके सबसे पास था। नक्सलियों ने जब कर्मा की हत्या की तो वह महज 5 फीट दूरी पर औंधे मुंह लेटा हुआ था। वह बताता है कि कर्मा जमीन पर गिरे। इसके बाद उन पर और गोलियां दागी गई। मैनें थोड़ा सिर उठाकर देखा। लाश और खून देखकर मुझे उल्टी आ गई। इसके बाद जो आता कर्मा जी पर गोली चलता, संगीन घोंपता। मैं घबरा गया था, रोने जैसा हो गया था तो मुझे नक्सलियों ने गाली दी। मैं बोला ड्राइवर हूं, छोटी-छोटी बच्चियां हैं, काम के कारण आना पड़ता है, आप कहोगे तो अब नहीं आउंगा। यह सुनकर नक्सलियों ने कहा चुपचाप लेटे रह। फिर मैनें आंखें नहीं खोली। थोड़ी देर बाद नीचे से मेरे साहब और बचे लोग सरेंडर कर आ गए। तब थोड़ी हिम्मत आई।

विद्या भैया का रेस्क्यू

सांसद, पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के कद्दावर नेता विद्याचरण भी इस काफिले में थे। उन्हें फायरिंग में 3 गोलियां लगी थी और वे गाड़ी से नीचे सड़क पर लहूलुहान बेहोश पड़े थे। घटनास्थल पर सबसे पहले पहुंचे पत्रकार नरेश मिश्र ने विद्याचरण को देखा। इस समय बाकी सभी लोग पहाड़ी पर ही थे। नक्सली उसी समय गए थे, लिहाजा लोग थोड़ा समय हो जाने का इंतजार कर रहे थे। उधर नरेश अपने कैमरामैन के साथ गाड़ियों के बीच पड़े मरे, गंभीर रूप से घायल लोगों को देख रहा था। इसी समय उसकी नजर विद्याचरण पर पड़ी। नरेश के मुताबिक “ मैंने उन्हें आवाज दी, थोड़ी हलचल हुई, उन्होंने कहा कि मुझे उठा सकते हो क्या। मैनें पूरी ताकत लगाकर उन्हें थोड़ा उठाया और किसी तरह एक गाड़ी के पहिए से टिका दिया। उस समय मैं और वे दोनों पूरी तरह एक्सपोज थे। हमारी बातचीत की आवाज भी सन्नाटे में गूंज रही थी।

लग रहा था कि यदि नक्सली होंगे तो वे आसानी से हमें निशाना बना लेंगे। 2 गनशॉट की आवाज भी आई। कुछ समय और बीता तो पहाड़ी पर जमा लोगो को विश्वास हो गया कि नक्सली चले गए हैं। वहां से कुछ लोग नीचे उतरे। मेरे पास आए। मलकीत सिंह, विवेक बाजपेयी और कैमरामैन की मदद से विद्याचरण को किसी तरह उठाकर गाड़ी की सीट पर बैठाया। उन्होंने पानी मांगा, पानी पिलाया। कमर में एक जगह से खून बह रहा था। मैनें वहां गमछा कसकर बांधा, लेकिन उन्हें सांस लेने में दिक्कत होने लगी। उन्होंने गमछा ढीला करने कहा, फिर हम लोग मदद लेने चले गए। दो-तीन लोग उनके पास रुक गए। बाद में एंबुलेंस से उन्हें लाया गया।” करीब 2 सप्ताह तक दिल्ली के मेदांता अस्पताल में मौत से लड़ने के बाद विद्या भैया हार गए। उन्हें मिलाकर इस नरसंहार में 32 लोग मारे गए और 31 घायल हुए।

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