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रायपुर // भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ जुड़ाव का जो गहरा रिश्ता है, उसका एक खूबसूरत उदाहरण है ‘रज-परब’, जो आज भी ओडिशा और उससे सटे छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में पूरी आस्था और उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह तीन दिवसीय पर्व इस बार शनिवार 14 जून से शुरू हुआ है। पहले दिन को ‘पहली रज’ कहा जाता है।
इस पर्व की खासियत यह है कि इसमें धरती को स्त्री माना जाता है — ठीक वैसे ही जैसे हमारी परंपराओं में धरती को माँ का दर्जा मिला है। और जब स्त्री है, तो वह रजस्वला भी होती है। इसी सोच के तहत ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की तृतीया, चतुर्थी और पंचमी को धरती माँ की रजस्वला अवधि मानते हुए उस पर कोई कृषि कार्य नहीं किया जाता। हल चलाना, खुदाई करना या खेतों में काम बंद हो जाता है।
स्त्रियाँ बनती हैं धरती माता की प्रतीक
इन तीन दिनों में न सिर्फ धरती को विश्राम दिया जाता है, बल्कि घर की स्त्रियों को भी विशेष सम्मान दिया जाता है। उन्हें धरती माता की तरह पूजा नहीं तो कम से कम वह सम्मान ज़रूर मिलता है, जिसकी वह अधिकारी हैं। घर के सारे काम पुरुष करते हैं। महिलाएँ कोई घरेलू कार्य नहीं करतीं, न पूजा-पाठ, न रसोई — बल्कि वो इन तीन दिनों को उत्सव की तरह मनाती हैं।
उत्सव जैसा माहौल होता है
महिलाएँ पारंपरिक वस्त्र पहनती हैं, मेलों में जाती हैं, झूले डालकर झूलती हैं, स्वादिष्ट व्यंजन खाती हैं और मस्ती करती हैं। यह एक ऐसा पर्व है जो स्त्री को उसका प्राकृतिक सम्मान लौटाता है — न उपदेश के ज़रिये, न आंदोलन के ज़रिये, बल्कि सहजता और लोक परंपरा के ज़रिये।
इस दौरान पृथ्वी माता से यह प्रार्थना की जाती है कि जैसे ही रज-परब समाप्त हो, वैसे ही मेघों की पहली बूंद धरती पर गिरे और धरती की गोद हरियाली से भर जाए।
परम्परा जो अब सीमित हो गई है
रज-परब जैसे पर्व अब धीरे-धीरे सिमटते जा रहे हैं। ओडिशा और उससे जुड़े छत्तीसगढ़ के कुछ अंचलों तक सीमित रह गए हैं। यह दुखद है कि जो परंपराएं स्त्री और प्रकृति दोनों को सम्मान देती हैं, उन्हें हम तेजी से भुला रहे हैं।
लेकिन अभी भी उम्मीद बची है — जब तक कुछ गाँव, कुछ लोग, कुछ कलम इसे याद रखते हैं।
✍🏻 राधामोहन पाणीग्राही, (मानिकपुर बड़े)
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